क्या हक़ था तुम्हे , यूँ मुझे छोड़ जाने का
किसी और की बात का इतना बुरा मान जाने का
या शायद किसी और के प्यार को अपनाने का
कहा तो होता एक भी बार
मजबूरियां
थी तेरी तो थी मेरी भी कुछ
पर क्या हक़ था मुझे यूँ रुलाने का
अच्छा वो सारे हक़ जो मैंने दे रखे थे
या कुछ तुमने ले भे लिए थे जबर्दस्ती
की तुम मेरे हो तो तेरा सब मेरा
की तुम मेरे हो तो तेरा सब मेरा
फिर क्या हक़ था उस हक़ को मिटाने का
सारे हक़ तेरे थे उसमे
सारा का सारा मैं था तुम्हारा
पर क्या हक़ था मुझे यूँ आज़माने का
अब तो सब खो चुका हूँ मैं
वो कंधा भी जहाँ सर रखके रो सकू
वो दोस्त भी जो मेरा हक़ था जिसपे
या फिर वो की अपने ऊपर अधिकार
कुछ भी तो नहीं बच रहा मुझमे
सिर्फ मैं ही बचा हूँ
फिर क्या हक़ था सब छीन जाने का
वो दोस्त जो मेरे साथ रोया
या मुझसे ज्यादा उसपे क्या हक़ था तुम्हारा
वो माँ मेरी जिसे मेरी तबियत खराब लगती थी
मिन्नतें मांगती रही उसपे क्या हक़ था तुम्हारा
वो भाई जिसने मुझे समझाया
हर पल साथ निभाया उसपे क्या हक़ था
की अचानक से तेरे खामोश होने का
क्या हक़ था तेरा यूँ खोने का
चलो सब मुझसे जुड़े है मेरी खातिर
पर मेरा भी तो हक़ दो
वो हक़ जो रात भर तेरे एक
मैसेज की खातिर जगा पर आया नहीं
जो तुमसे बात करने को
घर से बहाने मार कर निकल जाता
पर तभी तुम बिजी होती
या फिर वो हक़ जो इंतज़ार में काटी
या मेरा वो हक़ जो तेरी ओर बांटी
अरे इत्ता न सही फिर दोस्ती का भी तो
एक वो हक़ जो लड़ा खुदसे तेरे लिए
हक़ जो तेरे लिए हर सांस में था
वो हक़ की सपने तेरे देखे थे मैंने
या वो हक़ जो आज भी इंतज़ार में है
या फिर वो हक़ जो मेरे प्यार में है।।।।